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जानिए दलितों का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान-


अक्सर सवर्ण बंधुओ द्वारा यह प्रश्न किया जाता है की दलितों का
आजादी की लड़ाई में क्या योगदान रहा है , वे गाहे बेगाहे सवर्ण
क्रांतिकारियो की लिस्ट दिखा के यह साबित करने की कोशिश करते हैं की, सारी आज़ादी की लड़ाई उन्होंने ही लड़ी बाकी अछूत दलित तो कुछ नहीं करते थे ।
यह मानसिकता वह है जो हजारो सालों से चली आ रही है ,इसी
मानसिकता के चलते एकलव्य का अंगूठा कटवा के उसके बाद अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर की पदवी दिला दी जाती है ।

खैर, मैं आपको प्राचीन काल में नहीं अपितु इतिहास में ले चलता हूँ,

सब जानते हैं की आज़ादी की लड़ाई की शुरुआत 1857 में मंगल पाण्डे से शुरू हुई । हालांकी मंगल पाण्डे को अंग्रेजो से बगावत करने की प्रेरणा मातादीन वाल्मीकि से मिली वर्ना, पाण्डे जी जीवन भर अंग्रेजो की नौकरी ही करते रहते ।

मातादीन वाल्मिकि को अछूत होने के नाते भुला दिया गया ।
पर यहां आपको मैं बताऊंगा की आज़ादी की प्रथम लड़ाई 1857 में मंगल पाण्डे द्वारा नहीं लड़ी गई थी ,बल्कि, आज़ादी की लड़ाई 1804
में ही शुरू हो गई थी । और यह लड़ाई लड़ी गई थी छतरी के नबाब
द्वारा, छतरी के नबाब का अंग्रेजो से लड़ने वाला परमवीर योद्धा
था "ऊदैया चमार" ,जिसने सैंकड़ो अंग्रेजो को मौत के घाट उतार दिया था ।
उसकी वीरता के चर्चे अलीगढ़ के आस-पास के क्षेत्रो में आज
भी सुनाई देते हैं ,उसको 1807 में अंग्रेजो द्वारा फाँसी दे दी गई थी ।

उसके बाद आता है बाँके चमार, बाँके जौनपुर जिले के मछली
तहसील के गाँव कुँवरपुर के निवासी थे , उनकी अंग्रेजो में इतनी
दहशत थी की सन 1857 के समय उनके ऊपर 50 हजार का इनाम रखा था अंग्रेजो ने ।

अब आप सोचिये कि, जब "2 पैसे" की इतनी कीमत थी की उस
से बैल ख़रीदा जा सकता था तो उस समय "50 हजार" का इनाम कितना बड़ा होगा ।

वीरांगना झलकारी बाई को कौन नहीं जानता ? रानी झाँसी से बढ़ के
हिम्मत और साहस था उनमें , वे चमार जाति की उपजाति कोरी जाति से थी ।
पर दलित होने के कारण उनको पिछे धकेल दिया गया और
रानी झाँसी का गुणगान किया गया ।

1857 में ही राजा बेनी माधव (खलीलाबाद) अंग्रेजो द्वारा कैद किये
जाने पर उन्हें छुड़ाने वाला अछूत वीरा पासी था !
इसके अलावा कुछ और दलित क्रान्तिकारियो के नाम आप लोगो को
बताना चाहता हूँ जो गोरखपुर अभिलेखों में दर्ज हैं ।
1- आज़ादी की लड़ाई में चौरा-चौरी काण्ड एक मील का पत्थर है ,
इसी चौरा-चौरी कांड के नायक थे "रमापति चमार" , इन्ही की
सरपस्ति में हजारो दलितों की भीड़ ने चौरा-चौरी थाने में आग लगा दी थी जिससे 23 अंग्रेज सिपाहियों की जलने से मौत हो गई थी ।
इतिहासकार श्री. डी सी दिनकर ने अपनी पुस्तक "स्वतंत्रता संग्राम" में 'अछूतों का योगदान' में उल्लेख किया है की- "अंग्रेजो ने इस काण्ड में सैंकड़ो दलितों को गिरफ्तार किया ।
228 दलितों पर सेशन
सुपुर्द कर अभियोग चला ।
निचली अदालत ने 172 दलितों को फाँसी
की सजा सुनाई।
इस निर्णय की ऊपरी अदालत में अपील की गई , ऊपरी अदालत ने 19 को फाँसी, 14 को आजीवन कारवास , शेष को आठ से पांच साल की जेल हुई ।

2 जुलाई 1923 को 18 अन्य दलितों के साथ चौरा-चौरी कांड के नायक रमापति को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया ।

चौरा-चौरी कांड में फाँसी तथा जेल की सजा पाने वाले क्रन्तिकारी
दलितों के नाम थे-

1- सम्पति चमार- थाना- चौरा, गोरखपुर, धारा 302 के तहत
1923 में फांसी,

2- अयोध्या प्रसाद पुत्र महंगी पासी- ग्राम - मोती पाकड़, जिला
चौरा, गोरखपुर , सजा - फाँसी

3- कल्लू चमार, सुपुत्र सुमन - गाँव गोगरा, थाना-झगहा, जिला
गोरखपुर, सजा - 8 साल की कैद

4- गरीब दास , पुत्र महंगी पासी - सजा धारा 302 के तहत
आजीवन कारावास

5- नोहरदास, पुत्र देवीदीन- ग्राम - रेबती बाजार, थाना चौरा-चौरी, गोरखपुर, आजीवन कारवास

6-श्री फलई , पुत्र घासी प्रसाद- गाँव- थाना चौरा-चौरी , 8
साल की कठोर कारवास,

7-  बिरजा, पुत्र धवल चमार- गाँव - डुमरी, थाना चौरा, धारा 302
के तहत 1924 में आजीवन कारावास

8- श्री. मेढ़ाइ, पुत्र बुधई- थाना चौरा, गोरखपुर, आजीवन कारवास....

इसके अलावा 1942 के भारत छ़ोडो आंदोलन में मारने वाले और भाग लेने वाले दलितों की संख्या हजारो में हैं जिसमें से कुछ प्रमुख हैं -

1-मेंकुलाल ,पुत्र पन्ना लाल, जिला सीता पुर यह बहादुर दलित 1932 के मोतीबाग कांड में शहीद हुआ ।

2- शिवदान ,पुत्र दुबर - निवासी ग्राम - पहाड़ीपुर, मधुबन
आजमगढ़ , इन्होंने 1942 के 15 अगस्त को मधुबन थाना के प्रात: 10 बजे अंग्रेजो पर हल्ला बोला , अंग्रेजो की गोली से शहीद हुए ।

इसके अलावा दलित अमर शहिदों का भारत अभिलेख से प्राप्त
परिचय - मुंडा, मालदेव, सांठे, सिंहराम, सुखराम, सवराउ, आदि बिहार प्रान्त से ।

आंध्र प्रदेश से 100 से ऊपर दलित नेता व् कार्यकर्ता बंदी ।

बंगाल से 45 दलित नेता बलिदान हुए आजादी की लड़ाई में...

ऐसे ही देश के अन्य राज्यो में भी दलितों ने आज़ादी के संग्राम में
अपनी क़ुरबानी दी ।

अरे हाँ.... !!

सबसे महत्वपूर्ण नाम लेना तो भूल ही गया , जलियाँवाला बाग का
बदला लेने वाले और लन्दन जा के माइकल आडेवयार को गोलियों से भून देने वाले दलित "शहीद ऊधम सिंह...." जिसका नाम सुनते ही
अंग्रेजो में डर की लहर दौड़ जाती थी ।
ये सब दलित "स्वतंत्रता सेनानी" और हजारो ऐसे ही गुमनाम शहीद जो 'दलित' होने के नाते कभी भी मुख्य पंक्ति में नहीं आ पाये,
देश को नजर आये तो सिर्फ सवर्ण ।

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